कुछ बसे-बसाए
दिवालियापन घर की दीवारों पर दिखते हैं
एक लम्बी सुराख, जो उम्र का हवाला देती है.
पलंग पर लेटो तो सीधे आंखों के सामने
कौंधती रहती है.
औरतें भोरे-भोरे उठी हैं, बच्चे चूल्हे की
ताव से अपनी भूख मिटा रहे हैं,
दांत कट-कटा रहे हैं.
अपनी रात भर की चहल-कदमी-गरमी
छोड़कर बड़कू उठे हैं, रात में देशी कुछ ज्यादा
ही चढ़ गई थी, गिर पड़े थे.
आंगन में अव्यवस्था अपना काम व्यवस्थित ढंग से
चला
रही है, बाहर दुवार पर चुनाव के पर्चे साटे जा
रहे हैं.
इन सारी गतिविधियों के बीच घर का सबसे छोटा लड़का
मुंडेर से लड़कियां ताक रहा है, अपने जवान हो जाने
का आभास
करा रहा है.
अनगिनत चुनाव चिन्हों के बीच, अपने मत की हत्या
और दाताओं
की गुलामी ही घर में राशन ला सकती है
और यह यहां के सबसे प्रधान नियमों में शमील है
और
उस छोटे लड़के को लड़की उठाने
का प्रोत्साहन भी इसी से मिल सकता है.
उस वक्त जब सारी दुनिया सो रही होती है
वो घर जागता है, आदमखोर सी आंखें
चारो ओर फैली रहती है, सूखे होठ, गला जकड़ा हुआ
सा लगता है, इतने घनघोर प्रचारों
और अंधकारमयी विकास के बाद भी सीढ़ियां ठेहुन फोड़
जाती हैं.
बड़ा दुख होता है जब हम बाहर चेहरा सिकोड़कर
अपना मत “दाताओं” के हाथों में सौंप
आते हैं.
------राहुल पाण्डेय "शिरीष"